Tuesday, December 9, 2008

गीता काव्य-पीयूष
- (श्रीमद्भगवद्गीता हिन्दी भाषा-काव्यानुवाद से उद्धृत)




स्वतः प्राप्त हे पार्थ ! खुले यह, स्वर्ग-द्वार के जैसा।
भाग्यवान क्षत्री ही करते, युद्ध प्राप्त हैं ऐसा।।

नष्ट हुए कुल-धर्म मनुज का, वास अनिश्चित पल तक।
हे जनार्दन! सुना गया है, सदा नर्क में अब तक।।१/४४।।

इस देही को शैशव , यौवन , जरा यथा है आता।
है अन्य देह भी वैसे, मोहित, विज्ञ नही हो जाता।।२/१३।।

विज्ञ-अरि इस तृप्ति-हीन,इस काम-अनल के द्वारा।
हे कौन्तेय ! सब ज्ञान मनुज का, ढका हुआ है सारा।।३/३९।।

अधर्म - वृद्दि और नाश धर्मं का , जब-जब भारत होता।
स्वयं जन्म मैं इस धरती पर, तब-तब आकर लेता।।४/७।।

करने दुष्टों का नाश और , भक्तो की रक्षा हित में।
युग-युग में लेता जन्म, धर्म को करने स्थापित मैं।।४/८।।

ब्रह्म-समर्पित कर कर्मों को, संग-रहित करता जो।
जल से पद्य्न-पत्र-सम अघ में, लिप्त नहीं होता वो।।५/१०।।

चंचल, प्रमथनशील और, अत्यंत बलि ये मन है।
वायु-सम ही इसे रोकना, मधुसूदन ! अति कठिन है।।६/३४।।

चार तरह के पूत मनुज हैं, करते मेरा अर्चन।
हे भरत ! आर्त-जिज्ञासु-अर्थी, और महाज्ञानी जन।।७/१६।।

जिस समय प्राप्त होते मृत योगी, अनावृति- आवृति को।
कहता हूँ अर्जुन भरत श्रेष्ठ !, तुझ से उस काल-गति को।।८/२३।।

गतियुक्त बली सर्वत्र पवन ये, ज्यों स्थित है नभ में ।
उसी तरह तू समझ भूत ये, सारे स्थित मुझ में।।९/६।।

हूँ आदि-अंत -मध्य में स्थित, मैं , गुडाकेश ! भूतो के।
हूँ मैं ही स्थित जीव सभी के, अन्तर में जीवो के।।१०/२०।।

मेरे हेतु कर्म-युक्त, मत्परम-भक्त मेरा अर्जुन जो।
अनासक्त, निर्वैर, पाण्डव !, है होता प्राप्त मुझे वो।। ११/५५।।

न स्थिर रख सकता मुझ में, तू यदि धनञ्जय मन को।
कर प्रयत्न अभ्यास योग से, तू पाने का मुझ को।।१२/९।।

वह ज्योतियों की ज्योति, तमस से परे कहा है जाता।।
ज्ञान, गेय, ज्ञानगम्य उरो में, है सबके वो रहता।।१३/१७।।

प्रकृति-सम्भव, सत्व-रजो-तम, हे अर्जुन त्रिगुण ये ही।
बाँध देह में देते ये हैं, ये अविनाशी देही।।१४/५।।

होता ज्ञान उत्पन्न सत्व से, होता लोभ रजस से।
अज्ञान, मोह, प्रमाद पनपते, अर्जुन अरे तमस से।।१४/१७।।

करता प्रकाशित तेज सूर्य-गत, जो इस पूर्ण जगत को।
चंद्र-अनल में तेज व्याप्त जो, जान मेरा ही उसको।।१५/१२।।

काम-क्रोध और लोभ तीन ये, अर्जुन ! द्वार नरक के।
ये तीनो ही त्याज्य अतः हैं, कारक आत्म-पतन के।।१६/२१।।

रहना स्थित तप-दान-यज्ञ में, सत ही है कहलाता।
उस से सम्प्रक्त पार्थ ! कर्म भी, सत ही कहा है जाता।।१७/२७।।

सम्पूर्ण भूत के उर में अर्जुन !, रहता स्थित ईश्वर।
निज माया से उन्हें घुमाता, बैठा तन-यंत्रो पर।।१८/६१।।

योगेश कृष्ण ‘औ’पार्थ धनुर्धर, हैं विद्यमान जहाँ पर।
है मेरे मत से अचल क्षेम , श्री-नीति - विजय वहां पर।। १८/७८।।